Tuesday, July 25, 2017

‘वागर्थ’ के एकांत

फेसबुक पर पिछले दिनों मेरी नज़र कुछ ऐसे पोस्ट और प्रतिक्रियायों पर गयीजिसमें प्रो. शंभुनाथ के भारतीय भाषा परिषदकलकत्ता के निदेशक और 'वागर्थके संपादक चुने जाने पर हर्ष प्रकट किया गया था । इस तरह का आशय और विश्वास व्यक्त करते हुए लोगों ने आदरणीय गुरूजी को बधाई पेश की थी कि 'वागर्थके दिन तो अब अच्छे होंगेअब तक 'वागर्थपतनशीलता के रास्ते पर था! 
'वागर्थका क्या होगाऔर भारतीय भाषा परिषद का क्या हो रहा हैयह तो वे लोग अच्छे से बताएँगे जो बिना किसी जान-पहचान के एक लेखक की हैसियत से यहाँ अपनी रचनाएँ भेजते हैं! मैं सिर्फ यह कहना चाहूँगा कि एक प्रोफेसर संपादक को प्रसन्न करने के लिए पूर्व के किसी रचनाकार संपादक से श्रेय छीनने का प्रयास करना, महज एक दृष्टिकोण नहीं हैबेइमानी है, बेहयायी है, और हद दर्ज़े की धूर्तता भी है ।

वागर्थके एकांत
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एकांत श्रीवास्तव

2007 में 'वागर्थ' ने एक कविता प्रतियोगिता का आयोजन किया था । संभवतः यह प्रतियोगिता 35 वर्ष तक के कवियों के लिए आयोजित की गयी थी । इस प्रतियोगिता में बहुत उत्साह के साथ मैंने भी दो कविताएँ भेजी थी । तब मैं बी.ए. में एड्मीशन के उद्देश्य से दिल्ली आया हुआ था । मुझे याद है कि किंग्सवे कैंप के एक साइबर कैफे वाले को 20 या 25 रुपये प्रति पृष्ठ की दर से देकर, दो पृष्ठों में इन कविताओं को कम्पोज करवाया था । इस प्रतियोगिता में कोई पुरस्कार तो नहीं मिला, लेकिन 'वागर्थ' के नवंबर-2007 अंक में अपनी दोनों कविताओं के प्रकाशित होने की सूचना एक परिचित के माध्यम से मिली । यह मेरे लिए अप्रत्याशित खुशी की बात थी !
हुआ यह था कि तब के संपादक एकांत श्रीवास्तव ने पुरस्कृत कविताओं के साथ, प्रतियोगिता के लिए आयी अधिकांश नव लेखकों की कविताओं और कुछ अन्य युवाओं की कविताओं को शामिल कर इस अंक को नवलेखन कविता अंकका रूप दे दिया था ! इस अंक में न सिर्फ कविताएँ छापी गयी थीं बल्कि एकांत जी ने अपने संपादकीय में लगभग सभी कविताओं पर संक्षिप्त ही सही टिप्पणी भी की थी । पहली बार मेरी कविताएँ किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी । इस प्रकाशन से और मिल रही छिटपुट प्रतिक्रियायों से मेरा मनोबल काफी बढ़ा था । निश्चित रूप से ऐसा कई अन्य नव लेखकों के साथ भी हुआ होगा । उस अंक में छपे कई कवि/कवयित्री आज भी सक्रिय हैं । उनकी अपनी एक पहचान है,और अच्छा लिख रहे हैं । नवलेखन कविता अंककी तर्ज पर ही संपादक ने अगला अंक नवलेखन कहानी अंकके रूप में प्रकाशित किया था । इस अंक ने भी निस्संदेह कई नव लेखकों का मनोबल बढ़ाने में अपना योगदान दिया होगा ।
एकांत जी के संपादन में ही वागर्थने जुलाई 2008 अंक को नवलेखन आलोचना पर केन्द्रित करने की घोषणा की थी और इसके लिए रचनाएँ आमंत्रित की थी । इसकी सूचना मुझे बाबूजी ने फ़ोन पर देते हुए ज़ोर देकर कहा था कि इस अंक के लिए मुझे एक लेख तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए । लेख तैयार करने का मन बना पाने में मुझसे देरी हुई । वे मेरे बी.ए. के शुरूआती दिन थे । लिखने-पढ़ने का उत्साह तो बहुत था, लेकिन तब मुझे संदर्भों का उल्लेख करने की पद्धति या आवश्यकता तक के विषय में कुछ पता नहीं था । समीक्षात्मक लेख लिखने का कोई अनुभव भी नहीं था । कुछ सम्बंधित किताबें पढ़कर और अपनी तब की समझ का जितना उपयोग कर सकता था, करके मैंने रेणु की कहानी पंचलाइटका एक पुनर्पाठ तैयार किया था । आलोचनात्मक तो क्या ही कहेंगे, उसे लेखक और उसकी रचना से प्रभावित होकर किया गया विश्लेषण और व्याख्या कहना उचित होगा ।
अपेक्षाकृत देर हो जाने के कारण मुझे संपादक को फ़ोन कर के पूछ लेना उचित लगा था । एकांत जी फ़ोन पर सहज उपलब्ध हो गये थे, और बहुत ही विनम्रता से उन्होंने बात की थी । नवलेखन कविता अंकमें मेरी छपी रचना का संदर्भ देने पर उन्होंने मुझे पहचान लिया और कहा कि आपकी कविता पर तो अच्छी प्रतिक्रियायें आ रही हैं ! मैंने उन्हें नवलेखन आलोचना अंक के लिए तैयार अपने पुनर्पाठ के बारे में बताया । उन्होंने कहा कि रेणु जी की कहानी पर तो एक पुनर्पाठ पहले ही स्वीकृत हो चुका है । मैंने उन्हें बताया कि बहुत मन से और मेहनत से यह लेख तैयार किया था ! वे शायद एक नव लेखक को मायूस नहीं करना चाहते थे, उन्होंने कहा कि अच्छा, आप भेज दीजिए । रेणु तो बड़े रचनाकार हैं, उन पर दो लेख भी आ सकते हैं । अब हिचक मेरी ओर से थी और वह यह थी कि रेणु की कहानी पर एक अच्छा पुनर्पाठ यदि पहले ही स्वीकृत हो चुका है, तो पता नहीं मेरा पुनर्पाठ स्तरहीन न लगे । मैंने उन्हें संकोच के साथ कहा कि ठीक है, भेज देता हूँ, लेकिन पता नहीं छपने लायक लिख पाया हूँ या नहीं! एकांत जी ने कहा कि- आप भेजिए, आपने मन से लिखा है, तो छपेगा ही ! उसी बात-चीत में उन्होंने मुझसे कहा कि- आप उसी क्लास में हैं, न जो बारहवीं के ठीक बाद आता है! एकांत जी की बातों से उस दिन मैं कितना अधिक प्रोत्साहित हुआ था, उसे ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर सकता । आज लगभग एक दशक बाद भी मैं उस प्रोत्साहन की सकारात्मकता को महसूस कर पाता हूँ । उस नवलेखन आलोचना अंकमें मेरे किये एक पुनर्पाठ सहित रेणु की दो कहानियों पर कुल दो पुनर्पाठ प्रकाशित हुए थे। इस प्रकाशन के बाद प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रियायें भी मिलती रहीं, और मुझे स्वीकार करना चाहिए कि इस प्रकाशन के बाद मेरा यह आत्मविश्वास विकसित हुआ कि मैं भी आलोचनात्मक लेखन कर सकता हूँ । इसी प्रकाशन के बाद मिली प्रतिक्रियायों से मुझे ऐसा लगा और मैने तय किया कि आलोचनात्मक लेखन दायित्वबोध के साथ करूँगा और छपने की जल्दबाजी नहीं करूँगा । मुझे लगता है कि मैं आज तक अपने इस संकल्प को निभा पाने में कामयाब रहा हूँ । 
इसके बाद मैंने वागर्थमें कभी कोई रचना प्रकाशनार्थ नहीं भेजी और एकांत जी से फिर कोई सम्पर्क भी नहीं रहा, लेकिन उनके संपादन में आने वाले बाद के अंक भी मैं देखता रहता था । उनके संपादन में प्रकाशित हुए अन्य गद्य विधाओं पर केन्द्रित नवलेखन अंक के माध्यम से भी कई नव लेखकों की प्रतिभाओं से परिचित होने का अवसर मिला था । वह भी एक संग्रहणीय अंक था । उनके संपादन में आने वाले सामान्य अंकों में भी युवा और ताजे चेहरे दिखते रहते थे । इन अंकों की एक खूबसूरती यह भी हुआ करती थी कि इनमें विचारों और प्रतिबद्धताओं की विविधता दिखाई देती थी ।
कुछ महीनों बाद पता चला कि एकांत जी की जगह विजय बहादुर सिंह ने ले ली है । कई कारणों से धीरे-धीरे साहित्यिक पत्रिकाओं से एक पाठक के बतौर मेरा नियमित जुड़ाव कम होने लगा था ।  कुछ वर्षों बाद एक बार फिर एकांत जी के संपादक बनने की ख़बर सुनी । अब शंभुनाथ जी के संपादक बनने की ख़बर सुन रहा हूँ !
यह सही है कि एकांत जी के प्रति मेरे मन में अपने व्यक्तिगत अनुभवों के कारण सम्मान है । एक स्थापित लेखक/संपादक का मुझ बिल्कुल अपरिचित, बिल्कुल नये और एक कम उम्र रचनाकार को गंभीरतापूर्वक फ़ोन पर सुनने, विनम्रता से जवाब देने और प्रोत्साहित करने के सहज तरीके की छाप मेरे मन पर है । लेकिन उनके योगदान के मूल्यांकन का आधार मात्र मेरा अनुभव नहीं है । मैं निजी बातचीत से जानता हूँ कि मेरे कई अन्य लेखक मित्रों का भी मुझसे मिलता-जुलता अनुभव रहा है । मुझे आशा है कि कुछ मित्र इस बात की पुष्टि भी करेंगे ।
भयावह संपादकीय अहंकार के दौर में क्या एक संपादक को इसलिए विशिष्ट नहीं माना जाना चाहिए कि उसने कई नव लेखकों को बिना भेद-भाव, बिना जान-पहचान के अवसर दिया, और जिससे उनकी प्रतिभा पर्याप्त प्रोत्साहित हुई ? बहुत अधिक ऐतिहासिक-साहित्यिक महत्व के विशेषांकों के प्रकाशन के बजाय भविष्य एक संपादक के योगदान का मूल्यांकन इस संदर्भ में भी करेगा कि उसने संभावना से भरे कितने नये लेखकों को सामने लाने और प्रोत्साहित करने का काम किया । मैं मानता हूँ कि इस दिशा में एकांत जी का योगदान महत्वपूर्ण है । बहुत प्रयास करके भी कोई उनसे यह श्रेय नहीं छीन सकता । हिन्दी के संपादकों को इस मामले में एकांत जी से सीखने की जरूरत है । 

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[स्पष्टीकरण: इस लेख में लगभग एक दशक पहले की बातों का जहाँ उल्लेख हुआ है, मैंने अपने स्मरण और अपने विश्वास में जो सच है, उसे लिखा है । संभव है कुछ त्रुटियाँ रह गयी हों, घटनाओं के क्रम में थोड़ा-बहुत अंतर रह गया हो, और संवाद में ठीक-ठीक वही बातें नहीं आ पायी हों, जो हुई होंगी । लेकिन इस लेख में भावनाओं और आशय को ठीक-ठीक अभिव्यक्त कर पाने का मैंने पूरा प्रयास किया है । यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह लेख व्यक्ति एकांत श्रीवास्तव के बजाय संपादक एकांत श्रीवास्तव पर केन्द्रित है । एकांत जी की विचारधारा, भाषा परिषद के साथ उनके सम्बंध, सहमति-असहमति जैसे पहलुओं की न तो मुझे जानकारी है और न तो उस पर बात करना इस लेख का अभिष्ट है।] 

3 comments:

  1. आदरणीय,
    सौरभ जी
    यह संस्मरण पढ़ कर अच्छा लगा। पिछले दिनों आपकी कुछ कविताएं कविता कोश पर पढ़ी थी। मार्मिक लगी। इसके लिए आपको बधाई और आगे इसी तरह की लेखनी के उम्मीद के साथ शुभकामना।

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  2. बहुत शुक्रियाआशुतोष :)

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  3. बहुत शुक्रिया :)

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